मुझे फोटोग्राफी करना बहुत पसंद है। मैं यहाँ अपनी तस्वीरों तथा रेगिस्तानी गाँवो में प्रचलित किस्सों कहानियों व अपने जीवन के अनुभवों को अपनी टूटी-फूटी भाषा के साथ साझा करने के लिए मैं यहाँ लम्बे समय के बाद उपस्थित हूँ।अपने इस ब्लॉग में मैं अपने जीवन के अनुभवों, पसन्दीदा कविताओं व तस्वीरों को प्रस्तुत कर रहा हूँ।
Sunday, 5 July 2020
दीवाना हुआ बादल
दफ़्तर में उकताया हुआ बाहर निकला तो दूर आसमान की छत पर बादलों को उमड़ता हुआ देखकर मुझे मोहन राकेश उस किताब पर लिखी हुई पंक्तिया याद हो आई जिसका शीर्षक था"आषाढ़ का एक दिन।" इत्तेफाक से यह आषाढ़ का ही एक दिन था। कोरोना के चलते सड़कों पर आवाजाही सामान्य दिनों की तुलना में कम ही थी। हालांकि सरदारशहर टैपों का शहर है जहां आदमी कम टेम्पों ज्यादा है।तापमान की बात करें तो यह देश के सबसे गर्म शहरों की फेहरिस्त में शुमार चूरू शहर का ही एक भाग है। तपते हुए रेगिस्थान में दिन आग की तरह झुलसाता है वहीं रातें बेहद ठंडी हो जाती है।आषाढ़ के दिनों में बारिश का आना बहुत बड़ी राहत की खबर होती है। आज भी गर्मी अन्य दिनों की तुलना में अधिक ही थी। मगर बादलों का सौंदर्य देखकर एक रेगिस्तानी के मन का फोटोग्राफर जाग उठा। फिर जो हुआ वो आपके सामने है।।🍁🍁🌦️
Friday, 15 May 2020
कीकर के फूलों से महकता थार
दोस्तों वैसे तो रेगिस्तान में कई कंटीली झाड़ियां व वनस्पतियों के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं मगर उन सबकी अपनी एक अलग ही खूबसूरती व विशेषताएँ हैं। प्रकृति ने थार को पानी से वंचित रखा मगर साथ ही साथ कुछ नायब तोहफ़े भी दिये है। थार के फूलों की खूबसूरती पर बहुत कम लिखा गया है। रेत के अथाह समंदर में न जाने कितने नायाब मोती बिखरे पड़ें है। एक थार का प्राणी होने के नाते मेरा फ़र्ज़ बनता है कि मैं आपको अपने थार की उस अमूल्य विरासत व खूबसूरत परम्पराओं से परिचित करवाऊं। आज इसी क्रम में प्रस्तुत है कीकर के फूल।
कीकर की छाँव में कितने खूबसूरत रंग बिखरे पड़े हैं।गहरा पीलापन लिए हुए कीकर के फूल इतने हल्के होते है कि जरा से हवा के झोंके के साथ उड़ने लगते हैं।रेगिस्थान की खूबसूरती कीकर के फूलों में भी हैं। कीकर के इन गोलाकार खूबसूरत फूलों पर बहुत कम कविताएँ लिखी गई है।
किरण मल्होत्रा जी ने कीकर के फूलों पर कविता लिखी है जो इस प्रकार है।
सुर्ख़ फूल गुलाब के
बिंध जाते
देवों की माला में
सफेद मोगरा, मोतिया
सज जाते
सुंदरी के गजरों में
रजनीगंधा, डहेलिया
खिले रहते
गुलदानों में
और
पीले फूल कीकर के
बिखरे रहते
खुले मैदानों में
बंधे हैं
गुलाब, मोगरा, मोतिया
रजनीगंधा और डहेलिया
सभ्यता की जंजीरों में
बिखरे चाहे
उन्मुक्त हैं लेकिन
फूल पीले कीकर के
हवा की दिशाओं
संग संग बह जाते
बरखा में
भीगे भीगे से
वहीं पड़े मुस्कुराते
देवों की माला में
सुंदरी के गजरों में
बड़े गुलदानों में
माना नहीं कभी
सज पाते
फिर भी लेकिन
ज़िन्दगी के गीत
गुनगुनाते
मोल नहीं
कोई उनका
ख्याल नहीं
किसी को उनका
इन सब बातों से पार
माँ की गोद में
मुस्काते
वहीं पड़े अलसाते
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Thursday, 14 May 2020
मेरा दागिस्तान: रसूल हमजातोव
मेरा दाग़िस्तान: रसूल हमज़ातोव
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एक अद्भुत किताब है मेरा दाग़िस्तान।जो हमें अपनी मिट्टी,अपने देश व अपनी मातृभाषा से प्रेम करना सिखाती हैं। इस किताब से मेरा पहला परिचय तक़रीबन चार साल पहले रामकिशन अडिग ने करवाया था। रसूल हमज़ातोव दाग़िस्तान के रहने वाले थे। वही दाग़िस्तान जो मानचित्र में लगभग नहीं सा दिखाई देता है।इस छोटे से राज्य में लगभग बीस लाख की जनसंख्या है।यहाँ लगभग 36 बोलियां बोली जाती हैं तथा अवार भाषा बोलने समझने वालों की संख्या लगभग तीन लाख हैं। यह लेखक की मातृभाषा है। यह पुस्तक संभवतः रूसी भाषा में लिखी गई होगी मगर मैंने इसका हिंदी अनुवाद पढ़ा जो कि मदनलाल "मधु" ने किया हैं। किस्सागोई की शैली में लिखी गई इस दिलचस्प किताब में गद्य के साथ -साथ लोकगीतों व कविताओं का मिश्रण भी पढ़ने को मिलता हैं।
◆ बोलना सीखने के लिए आदमी को दो साल की जरूरत होती है , मगर यह सीखने के लिए कि जबान को बस में कैसे रखा जाए, साठ सालों की आवश्यकता होती है।
◆अस्त्र,जिसकी केवल एक बार ही आवश्यकता पड़े,जीवनभर अपने साथ रखना पड़ता है।
◆ कविताएँ, जिन्हें जीवनभर दोहराया जाता है, एक बार ही लिखी जाती हैं।
◆अच्छी सज्जा बुरी किताब को नहीं बचा सकती। उसका सही मूल्यांकन करने के लिए उस पर से पर्दा हटाना ज़रूरी है।
◆कुछ कलाकार भी, जिनमें प्रतिभा, सब्र औऱ आत्मसम्मान की कमी होती है, अपना माल बेचने के लिए पराए कपड़े पहन लेते हैं, बाहरी रूप की चमक-दमक से विचारों की दुर्बलता को छिपाते हैं। मगर यदि पेट में चूहे कूद रहे हों,तो बाँकपन से फ़र की टोपी ओढ़ने में क्या तुक है?
◆जो कविताएँ आसानी से लिखी गई थीं, उन्हें पढ़ना कठिन होता है। जो कविताएँ मुश्किल से लिखी गई थीं,उन्हें पढ़ना आसान होता है।
◆ गीतों के बारे में यह सही है कि दुनिया में सिर्फ तीन गीत हैं- पहला- माँ का गीत,दूसरा-माँ का गीत और तीसरा गीत-बाकी सभी गीत।
विषय के बारे में: यह तो माल-मते से भरा संदूक़ है। शब्द-वह इस संदूक़ की चाबी है। मगर संदूक़ में अपनी दौलत होनी चाहिए,पराई नहीं।
एक विषय से दूसरे विषय पर छलाँग लगनेवाले लेखक अनेक शादियाँ करने के लिए पहाड़ों में विख्यात दालागालोव के समान हैं। उसने जैसे-तैसे अट्ठाईस बार शादी की,मगर आख़िर में बिल्कुल अकेला ही टापता रह गया।
विषय सोई हुई मछली की भाँति पेट ऊपर को किये हुए सतह पर नहीं तैरा करता। वह तो गहराई में,तेज़ और निर्मल पानी में होता है। उसे वहाँ खोजिए,भँवर में से,जल-प्रपात के नीचे से निकालने की सामर्थ्य पैदा कीजिए।
लम्बे और कठोर श्रम से कमाए गए तथा पटरी पर संयोग से मिल जानेवाले धन का क्या एक जैसा ही मूल्य हो सकता है?
◆ कुछ कविताओं को पढ़ते हुए भी यह समझ में नहीं आता कि उनमें कवित्व अधिक है या कोरी शब्द-भरमार। काहिल कवि ही,जो मेहनत करने से घबराते हैं, ऐसी कविताएँ रचते हैं।मगर उछल-कूद करनेवाली नदी शायद ही कभी सागर तक पहुँच पाती है?
अनुवाद के बारे में:- कविताओं के अनुवाद उन बेटों के समान होते हैं, जिन्हें माँ-बाप पढ़ने या काम करने के लिए गाँव से भेजते हैं।बेशक हर हालत में ही बेटे उसी रूप में गाँव नहीं लौटते,जिस रूप में वे घर छोड़कर जाते हैं।
◆ कितने अधिक है ऐसे लोग,जो प्यार या घृणा की भावनाओं से प्रेरित होकर नहीं,बल्कि केवल गन्ध से प्रेरित होकर लेखनी उठाते हैं।
ये तमाम उद्धरण रसूल हमजातोव की पुस्तक मेरा दागिस्तान को पढ़ते हुए मैंने अंडरलाइन किये हैं।
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गगन गिल की कविताएं
एक उम्र के बाद माँएँ
खुला छोड़ देती हैं लड़कियों को
उदास होने के लिए...
माँएँ सोचती हैं
इस तरह करने से
लड़कियाँ उदास नहीं रहेंगी,
कम-से-कम उन बातो के लिए तो नहीं
जिनके लिए रही थीं वे
या उनकी माँ
या उनकी माँ की माँ
मसलन माँएँ ले जाती हैं उन्हें
अपनी छाया में छुपाकर
उनके मनचाहे आदमी के पास,
मसलन माँएँ पूछ लेती हैं कभी-कभार
उन स्याह कोनों की बाबत
जिनसे डर लगता है
हर उम्र की लड़कियों को,
लेकिन अंदेशा हो अगर
कि कुरेदने-भर से बढ़ जाएगा बेटियों का वहम
छोड़ भी देती हैं वे उन्हें अकेला
अपने हाल पर !
अक्सर उन्हें हिम्म्त देतीं
कहती हैं माँएँ,
बीत जाएँगे, जैसे भी होंगे
स्याह काले दिन
हम हैं न तुम्हारे साथ !
कहती हैं माएँ
और बुदबुदाती हैं ख़ुद से
कैसे बीतेंगे ये दिन, हे ईश्वर!
बुदबुदाती हैं माँएँ
और डरती हैं
सुन न लें कहीं लड़कियाँ
उदास न हो जाएँ कहीं लड़कियाँ
माँएँ खुला छोड़ देती हैं उन्हें
एक उम्र के बाद...
और लड़कियाँ
डरती-झिझकती आ खड़ी होती हैं
अपने फ़ैसलों के रू-ब-रू
अपने फ़ैसलों के रू-ब-रू लड़कियाँ
भरती हैं संशय से
डरती हैं सुख से
पूछती हैं अपने फ़ैसलों से,
तुम्हीं सुख हो
और घबराकर उतर आती हैं
सुख की सीढियाँ
बदहवास भागती हैं लड़कियाँ
बड़ी मुश्किल लगती है उन्हें
सुख की ज़िंदगी
बदहवास ढूँढ़ती हैं माँ को
ख़ुशी के अँधेरे में
जो कहीं नहीं है
बदहवास पकड़ना चाहती हैं वे माँ को
जो नहीं रहेगी उनके साथ
सुख के किसी भी क्षण में !
माँएँ क्या जानती थीं?
जहाँ छोड़ा था उन्होंने
उन्हें बचाने को,
वहीं हो जाएँगी उदास लड़कियाँ
एकाएक
अचानक
बिल्कुल नए सिरे से...
लाँघ जाती हैं वह उम्र भी
उदास होकर लड़कियाँ
जहाँ खुला छोड़ देती थीं माँएँ.
उदास होने के लिए
◆◆◆
पिता ने कहा
मैंने तुझे अभी तक
विदा नहीं किया तू मेरे भीतर है
शोक की जगह पर
◆◆◆
शोक मत कर
पिता ने कहा
अब शोक ही तेरा पिता है
◆◆◆
तुम सूई में से निकलती हो
मैं धागे में से ,माँ
कभी सूई में से मैं
धागे में से तुम
कौन सी बखिया ,माँ
हम सिले जा रहीं
सदियों से
कौन सा टांका
पूरा होने में नहीं आता
कब उतरेंगे सितारे
मैली अपनी चादर पर
खिलेगा कोई फूल
अपनी इस फुलकारी पर
कब ओढ़ेगीं
हम चाँद और पंछी
खेलेंगी कब
लुकन-छिपाई
बीत गए दिन ,माँ
बीत गए बरस सब
न ख़त्म होने को ये तुरपाई माँ
न धागा
न कहीं छोर इस चादर का
इतनी लम्बी ये सूई
कभी उंगली में तुम्हारी
कभी नाख़ून में मेरे
छेद में से तुम निकलती हो
जैसे ईश्वर के द्वार से
तुम्हारे पीछे-पीछे मैं
तुम्हारा चिथड़ा
◆◆◆
हर प्रेम सबसे पहले यही पूछता है, तुम्हारी चौखट तक आकर....
क्या तुम मेरे लिए कूद सकते हो खिड़की से नीचे? कर सकते हो छलनी अपना सीना?
हर प्रेम पूछता है यही...
उड़ सकते हो क्या मेरे साथ ?
प्रेम जब आता है तुम्हारी चौखट तक, तो जल्दी चले जाने के लिए नहीं
उसे जाना होता है किसी पर्वत या घाटी की तरफ़।
समुद्र या नदी की तरफ़।
वह बिना किसी पूर्वा योजना के आ निकलता है
तुम्हारे घर की तरफ़
और जानना चाहता है, तुम उसके साथ डूबने चल रहे हो या नहीं...
प्रेम तुम्हें भली-भांति मरने की
पूरी मोहलत देता है।
◆◆◆
धीरे-धीरे से दृश्य से
ओझल होता है
आदमी
पता भी नहीं चलता
कब दिन हुआ छोटा
लम्बी हुयी रात
फ़ैल गयी कब
मिट्टी में जड़
लिपट गयी
एक नागिन उससे
चला गया कब एक आदमी
हवा में टंगी रस्सी पर
बांस से चढ़ ऊपर
फिर वही
बैठ गया उतरकर
ख़ाली दीर्घा में
इस खेल में उसकी
असल है छाया
कि काया
कुछ पता नहीं चलता
कभी हंसी ,कभी रुदन
कभी झगड़े ,कभी बहस
शुरू से अंत तक
एक ही संवाद
झोल नहीं कहीं भी
एक आदमी जाता हुआ रस्सी पर
इधर -से -उधर
अपने एकांत में
पता भी नहीं चलता
पीली कब पड़ गयी
एक पत्ती
हँस पड़ा दूर कब
अँधेरे में फूल
चीख पड़ी चिड़िया
कब अपनी नींद में
अचानक नहीं बदलता कोई दृश्य
धीरे-धीरे होता है अदृश्य सब
दर्शक
अभिनेता
कथानक
पता भी नहीं चलता
कब चला गया एक आदमी
दूर
हर पुकार से
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