Thursday, 14 May 2020

गगन गिल की कविताएं

एक उम्र के बाद माँएँ
खुला छोड़ देती हैं लड़कियों को
उदास होने के लिए...

माँएँ सोचती हैं
इस तरह करने से
लड़कियाँ उदास नहीं रहेंगी,
कम-से-कम उन बातो के लिए तो नहीं
जिनके लिए रही थीं वे
या उनकी माँ
या उनकी माँ की माँ

मसलन माँएँ ले जाती हैं उन्हें
अपनी छाया में छुपाकर
उनके मनचाहे आदमी के पास,

मसलन माँएँ पूछ लेती हैं कभी-कभार
उन स्याह कोनों की बाबत
जिनसे डर लगता है
हर उम्र की लड़कियों को,
लेकिन अंदेशा हो अगर
कि कुरेदने-भर से बढ़ जाएगा बेटियों का वहम
छोड़ भी देती हैं वे उन्हें अकेला
अपने हाल पर !

अक्सर उन्हें हिम्म्त देतीं
कहती हैं माँएँ,
बीत जाएँगे, जैसे भी होंगे
स्याह काले दिन
हम हैं न तुम्हारे साथ !

कहती हैं माएँ
और बुदबुदाती हैं ख़ुद से
कैसे बीतेंगे ये दिन, हे ईश्वर!

बुदबुदाती हैं माँएँ
और डरती हैं
सुन न लें कहीं लड़कियाँ
उदास न हो जाएँ कहीं लड़कियाँ

माँएँ खुला छोड़ देती हैं उन्हें
एक उम्र के बाद...
और लड़कियाँ
डरती-झिझकती आ खड़ी होती हैं
अपने फ़ैसलों के रू-ब-रू

अपने फ़ैसलों के रू-ब-रू लड़कियाँ
भरती हैं संशय से
डरती हैं सुख से

पूछती हैं अपने फ़ैसलों से,
तुम्हीं सुख हो
और घबराकर उतर आती हैं
सुख की सीढियाँ
बदहवास भागती हैं लड़कियाँ
बड़ी मुश्किल लगती है उन्हें
सुख की ज़िंदगी

बदहवास ढूँढ़ती हैं माँ को
ख़ुशी के अँधेरे में
जो कहीं नहीं है

बदहवास पकड़ना चाहती हैं वे माँ को
जो नहीं रहेगी उनके साथ
सुख के किसी भी क्षण में !

माँएँ क्या जानती थीं?
जहाँ छोड़ा था उन्होंने
उन्हें बचाने को,
वहीं हो जाएँगी उदास लड़कियाँ
एकाएक
अचानक
बिल्कुल नए सिरे से...

लाँघ जाती हैं वह उम्र भी
उदास होकर लड़कियाँ
जहाँ खुला छोड़ देती थीं माँएँ.
उदास होने के लिए

◆◆◆

पिता ने कहा
मैंने तुझे अभी तक
विदा नहीं किया तू मेरे भीतर है
शोक की जगह पर

◆◆◆

शोक मत कर
पिता ने कहा
अब शोक ही तेरा पिता है

◆◆◆

तुम सूई में से निकलती हो
मैं धागे में से ,माँ

कभी सूई में से मैं
धागे में से तुम

कौन सी बखिया ,माँ
हम सिले जा रहीं
सदियों से

कौन सा टांका
पूरा होने में नहीं आता

कब उतरेंगे सितारे
मैली अपनी चादर पर

खिलेगा कोई फूल
अपनी इस फुलकारी पर

कब ओढ़ेगीं
हम चाँद और पंछी

खेलेंगी कब
लुकन-छिपाई
बीत गए दिन ,माँ
बीत गए बरस सब

न ख़त्म होने को ये तुरपाई माँ
न धागा
न कहीं छोर इस चादर का

इतनी लम्बी ये सूई
कभी उंगली में तुम्हारी
कभी नाख़ून में मेरे

छेद में से तुम निकलती हो
जैसे ईश्वर के द्वार से

तुम्हारे पीछे-पीछे मैं
तुम्हारा चिथड़ा
◆◆◆

हर प्रेम सबसे पहले यही पूछता है, तुम्हारी चौखट तक आकर....
क्या तुम मेरे लिए कूद सकते हो खिड़की से नीचे? कर सकते हो छलनी अपना सीना? 
हर प्रेम पूछता है यही...
उड़ सकते हो क्या मेरे साथ ?
प्रेम जब आता है तुम्हारी चौखट तक, तो जल्दी चले जाने के लिए नहीं
उसे जाना होता है किसी पर्वत या घाटी की तरफ़। 
समुद्र या नदी की तरफ़। 
वह बिना किसी पूर्वा योजना के आ निकलता है 
तुम्हारे घर की तरफ़ 
और जानना चाहता है, तुम उसके साथ डूबने चल रहे हो या नहीं...

प्रेम तुम्हें भली-भांति मरने की
पूरी मोहलत देता है।

◆◆◆

धीरे-धीरे से दृश्य से
ओझल होता है
आदमी

पता भी नहीं चलता
कब दिन हुआ छोटा
लम्बी हुयी रात

फ़ैल गयी कब
मिट्टी में जड़
लिपट गयी
एक नागिन उससे

चला गया कब एक आदमी
हवा में टंगी रस्सी पर
बांस से चढ़ ऊपर

फिर वही
बैठ गया उतरकर
ख़ाली दीर्घा में
इस खेल में उसकी
असल है छाया
कि काया
कुछ पता नहीं चलता

कभी हंसी ,कभी रुदन
कभी झगड़े ,कभी बहस
शुरू से अंत तक
एक ही संवाद

झोल नहीं कहीं भी

एक आदमी जाता हुआ रस्सी पर
इधर -से -उधर
अपने एकांत में

पता भी नहीं चलता

पीली कब पड़ गयी
एक पत्ती

हँस पड़ा दूर कब
अँधेरे में फूल

चीख पड़ी चिड़िया
कब अपनी नींद में

अचानक नहीं बदलता कोई दृश्य

धीरे-धीरे होता है अदृश्य सब
दर्शक
अभिनेता
कथानक

पता भी नहीं चलता
कब चला गया एक आदमी
दूर
हर पुकार से
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